निषाद भाइयो एक हो जाओ फिर सत्ता तुम्हारे हाथ मे।

बिखरी हुई
ताक़त "
हम लोग शिकवा- शिकायतें
ही करते रह गए और दूसरे
अपना काम निकलवा कर ले
गए| हम
साधनों की कमी का ही रोना
रहे और दूसरे सत्ता व शासन में
अपनी पकड़ बनाते चले गए|
उन्होंने अपनी जातीय
पहचान को बढाया और संगठन
बना कर अपने वोटों को एक
जुट करके राजनैतिक
शक्ति हासिल करते हुए
सरकार का हिस्सा बन बैठे,
जब कि हम न तो साधनों में
पीछे थे, न संख्याबल में | न
अनुभवहीन ही थे और न
ही मृतप्राय, फिर भी हमें
कोई राजनैतिक दल गिनने
को तैयार नहीं, शक्ति के रूप
में जानना और हमसे
डरना तो दूर
की कौड़ी रही| कारण स्पष्ट
हैं- बिखरी हुई ताक़त,
लुप्तप्राय् मान- सम्मान और
राजनैतिक इच्छाशक्ति
का घोर अभाव| इसलिए
बिखरे और बँटे हुए लोगों से
किसे और कैसा भय?
अपनी आबादी पर यदि हम
गौर करें
तो पश्चिमी उत्तरप्रदेश
की करीब ९०
विधानसभा सीटों पर
हमारा वोट है| प्रत्येक सीट
पर कम से कम दस हज़ार से
लेकर एक लाख तक
तुरैहा मछुआरा वोट है| मध्य
यूपी में अन्य
मछुआरा उपजातियों की बदौल
हम ४० सीटों पर, पूर्वांचल
की ८० सीटों पर , बुंदेलखंड
की मछुआ व् नाविक
जातियां ४० सीटों पर एवं
ब्रजक्षेत्र की ५० सीटों पर
मछुआ समाज अपने अन्य
सजातीय वोटों की ताक़त पर
निर्णायक की भूमिका में है|
इस तरह पूरे उत्तरप्रदेश
की ३००
विधानसभा क्षेत्रों में
हमारी हैसियत महत्वपूर्ण है|
यह आंकड़ा सरकार बनाने और
गिराने के लिए पर्याप्त है|
इस संख्याबल से हमारा समाज
भारी उलटफेर कर सकता है|
या कम से कम
इतना तो किया ही जा सकता
कि जो दल हमारी मांगों/
अनुसूचित जातियों के आरक्षण
पर विचार न करे, उसे हरा दें,
हटा दें |
लेकिन ये आंकड़ा सिर्फ
कागज़ी ही है, हकीकत से
कोसों दूर | एक नेता और एक
नियत के अभाव में हमारे
सभी प्रयास अँधेरे में तीर
चलाने जैसे हैं|७ जातियों और
४३ उपजातियों में बँटा यह
समाज अपना एक सर्वमान्य
संगठन तक
नहीं बना पाया है, एक
नेतृत्व की तो बात ही छोड़
दीजिये| अब नेतृत्व के अभाव
में कैसे संघर्ष किया जाए, किन
मुद्दों को उठाया जाए और
किस प्रकार अपनी बात
सरकार में बैठे संवेदनहीन और
सरोकार से दूर रहने वाले
लोगों तक पहुंचाई जाए, ये
बड़ा विचारणीय प्रश्न है | ये
ज्वलंत बिंदु हैं, ये पहेलियाँ हैं
और मुंहबांये खड़े सवाल हैं
समाज के नौजवानों के लिए,
और चुनौतियाँ हैं समाज के हर
उस व्यक्ति के लिए,
जो अपनी जाति से
ज़रा सा भी लगाव रखता है|
अपनी बिखरी ताक़त
को सहेजना होगा|
अपना सोया स्वाभिमान
जगाना होगा| अपनी बात के
लिए मरना सीखना होगा|
अपने विकास के लिए
दूसरों का मुंह ताकना बंद
करना होगा| अपने संगठन से
अपनी ताक़त खुद
बनानी होगी| इसके लिए
अपने मतभेद भुलाने होंगे|
आपसी वैमनस्य को भूलकर
भाईचारे
की भावना को विकसित
करना होगा| अपने तुच्छ
स्वार्थों के लिए समाज
की एकता को दांव पर लगाने
वाले जयचंदों की शिनाख्त कर
उन्हें समाज से
धकियाना होगा| समाज
का हित सोचने वालों को ढूंढ
ढूंढ कर आगे लाना होगा,
निश्चय ही ये
ही वो भागीरथ होंगे,
जो समाज में
क्रान्ति की गंगा ले आयेंगे |
इसके लिए हमें इंतज़ार नहीं,
शुरुआत
करना होगी क्योंकि २०१२
अब ज्यादा दूर नहीं है|
"वो मुतमईन है , पत्थर पिघल
नहीं सकता |
मैं बेक़रार हूँ , आवाज़ में असर के
लिए || writen by vishambhar prashad nishad

2 comments: